वज्रकुल को सहयोग दें
भारतवर्ष का इतिहास त्याग की अनेकों घटनाओं से भरा पड़ा है जहाँ हमारे पूर्वजों ने मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व दान दे दिया, चाहे वह महर्षि दधीचि हों, जिन्होंने देवताओं (देवराज इंद्र के नेतृत्व में) को अपनी अस्थियाँ दान दी ताकि वह एक शस्त्र (वज्र, जिसके नाम पर हमारे कुल का नाम रखा गया है) का निर्माण कर सकें और असुरों को पराजित कर सकें, या माँ पन्ना जिन्होंने राज्य के प्रति अपने सर्वोच्च कर्तव्य का पालन करते हुए राजकुमार के जीवन की रक्षा हेतु अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान दिया, या महाराणा प्रताप जिन्होंने मुग़ल सम्राट अकबर के समक्ष झुकने की अपेक्षा अपने बालकों को घास की रोटियाँ खिलाई, या भामाशाह जिन्होंने अपना सारा कोष समाज के सम्मान की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप को समर्पित कर दिया, या गुरु गोबिन्द सिंह जी के पुत्र ज़ोरावर सिंह (8 वर्ष) व फ़तह सिंह (5 वर्ष) जिन्होंने अपना धर्म त्याग कर इस्लाम स्वीकार करने की अपेक्षा स्वयं को दीवार में जीवित चुनवा लेना स्वीकार किया । हम गौरवान्वित हैं कि हम ऐसे पूर्वजों की संताने हैं ।
हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने हमें 4 पुरुषार्थों की शिक्षा दी, जिनके लिए प्रत्येक मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए: धर्म (व्यक्तिगत कर्तव्य), अर्थ, काम, व मोक्ष । दुर्भाग्यवश, हमारा वर्तमान समाज मात्र अर्थ व काम पर ही केंद्रित होकर रह गया है । परिणामस्वरूप, हमारे सामाजिक मूल्यों का व्यापक पतन हो गया है और हम चहुं ओर कष्ट व पीड़ा देखते हैं ।
आचार्य वशिष्ठ के अनुसार, विद्या से विनय प्राप्त होता है, विनय से पात्रता, और पात्रता से धन, तथा धन का प्रयोग परमार्थ धार्मिक कार्यों में करना चाहिए जिससे सुख की प्राप्ति होती है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति, जिसे सुख व प्रसन्नता की कामना है, को परमार्थ कार्य करने चाहिए और उनमें भाग लेना चाहिए ।
भूतपूर्व राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर जी ने भी कितना सुंदर लिखा है:
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है, एक रोज़ तो हमें स्वयं सब कुछ देना पड़ता है |
जो नर आत्मदान से अपना जीवन-घट भरता है, वही मृत्यु के मुख में भी पड़कर न कभी मरता है ||
इन उदाहरणों व व्याख्या से दान व त्याग की महिमा स्पष्ट है । शास्त्रों में वर्णित भिन्न भिन्न प्रकार के दान वर्णित हैं जिनमें गौ दान, भू दान, व विद्या दान प्रमुख माने गए हैं । मेरी दृष्टि में वर्तमान समाज में यह निम्न तीन रूपों में परिलक्षित होते हैं : विद्या दान, श्रम दान, व अर्थ दान । क्योंकि व्यक्ति अपनी चेतना व बुद्धि के तेज़ तथा परिश्रम से विद्या पाता है और इसका प्रभाव समस्त जीवन पर पड़ता है । अतः, शास्त्रों में विद्या दान को सर्वोच्च माना गया है । तत्पश्चात, व्यक्ति के मात्र दैहिक परिश्रम द्वारा प्रदत्त श्रम दान आता है । और अंततः, बुद्धि या दैहिक परिश्रम से उपजा अर्थ दान आता है । पहले दो दानों में दानी की स्वयं की उपस्थिति अनिवार्य होती है, और तीसरा दान दानी की अनुपस्थिति में भी उपयोगी होता है । यद्यपि आज के युग में किसी भी कार्य की संपन्नता के लिए अर्थ की महत्ता को निम्न नही माना जा सकता, तथापि हमारे पूर्वज आचार्यों ने अर्थ के बिना भी अधिकांश यज्ञों को संपन्न किया था ।
अतः, यदि आप वज्रकुल के ध्येय व उद्देश्यों में अपने जीवन की छवि व आकांक्षा पाते हैं, तो माँ भारती की सेवा में समर्पित इस महायज्ञ हेतु संपूर्ण वज्रकुल परिवार की ओर से मैं आपसे विद्या दान, श्रम दान व अर्थ दान (इसी वरीयता क्रम में) की विनम्र प्रार्थना करता हूँ । अपने योगदान (विचार व सुझावों सहित) हेतु कृपया हमसे [email protected] पर संपर्क करें ।